Saturday, July 18, 2020

BULBUL MOVIE REVIEW







क्या आपने कभी सोचा है भारतीय पौराणिक कहानियों में पुरुष भूतों के मुकाबले डायन और चुड़ैलों का जिक्र बहुतायत में क्यों मिलता है? अगर नहीं सोचा तो शायद बुलबुल देखने के बाद आपके सामने तस्वीर साफ हो जाएगी।

बुलबुल की कहानी ब्रिटिश काल के कलकत्ता प्रेसिडेंसी में 1881 में शुरू होती है। महज सात आठ साल की बुलबुल की शादी उससे करीब तीस साल बड़े इंद्रनील ठाकुर से कर दी जाती है। शादी के बाद कहानी सीधा बीस साल आगे मूव कर जाती है जब हवेली में उम्र में छोटी लेकिन ओहदे से बड़ी बहु... बड़े घरानों के तौर तरीके सीख रही है। अपने अम्मा बाबा की बगिया में आजाद उड़ने वाली बुलबुल अब बड़ी हवेली के पुरुष प्रधान दमनकारी माहौल में खुद को ढालने की कोशिश करती नज़र आती है। बड़े ठाकुर का छोटा भाई जो की बुलबुल का हमउम्र है लंदन से वकालत कर लौटता है जिसके बाद कहानी रफ्तार पकड़ती है और फिर इलाके में एक के बाद एक सिलसिलेवार हत्याएं होने लगती हैं। इलाके में एक चुड़ैल का खौफ है। लोगों को अंदेशा है कि ये हत्याएं वही चुड़ैल कर रही है। इससे पहले की आप किसी निश्कर्ष पर पहुंचे ये फिल्म भूत प्रेतों से कहीं ज्यादा भारतीय समाज में आदिकाल से हो रहे महिलाओं के दमन की तस्वीर बयान करती है। समाज में उनका दोयम स्थान और रीति रीवाज के नाम पर पैरों में पड़ी बेरियों को तोड़कर बाहर निकलने की उनकी अणवरत कोशिशों के नाम है ये फिल्म बुलबुल। शादी के समय छोटी सी बुलबुल अपनी मां से पूछती है, मां पैरों में बिछिया क्यों पहनते हैं, उसकी मां कहती है कि पैर में एक नस होती है जिसके दबने से फिर लड़की काबू में रहती है फिर वो उड़ नहीं सकती। एक और सीन में हवेली की छोटी बहु पाओली डैम बुलबुल को समझाते हुए कहती है कि खामोश रहोगी, तुम्हें गहने मिलेंगे, सिल्क की साड़ियां मिलेंगी, चुप रहोगी तुम्हें हवेली में नाम और इज्जत मिलेगी। फिल्म में कई सारी परतें हैं जो बुलबुल के देवर और फिल्म के हीरो अविनाश तिवारी के लंदन से लौटने के बाद खुलने लगती हैं। फिल्म लगातार एक टाइम जोन से दूसरे में शिफ्ट होती है जिससे सस्पेंस भी बना रहता है। फिल्म का निर्देशन किया है अनविता दत्ता ने। जाहिर है फिल्म में उन्होंने महिलाओं की ऐसी बारिक मनस्थिति को कैप्चर किया है जो किसी पुरुष निर्देशक के लिए मुश्किल होता। फिल्म की हीरोईन तृप्ति डिमरी ने अपने अभिनय में काफी मेच्योरिटी दिखाई है। वो इससे पहले साल दो हजार अठारह में आई लैला मजनू में नजर आईं थीं। बुलबुल में तृप्ति के के किरदार में कई शेड्स हैं और उन्होंने इस मौके को दोनों हाथों से अपनाया है। लैला मजनू में तृप्ति के कोस्टार रहे अविनाश तिवारी का काम भी बढ़िया है। अपनी बाकी फिल्मों की तरह ही अभिनेता राहुल बोस यहां ठाकुर इंद्रनील की भूमिका में रच बस गए हैं। फिल्म में बंगाली फिल्मों के अभिनेता परंब्रता चटोपाध्याय भी हैं जो डॉक्टर के किरदार में छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं।  फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर और सिनेमैटोग्राफी रहस्य और रोमांच को बढाने में मदद करता है। फिल्म में लाल रंग का खास इस्तेमाल हुआ है। बुलबुल के पैरों में लाल अलता से शुरू होकर क्लाइमैक्स तक इस रंग का भरपूर इस्तेमाल हुआ है। रात के लाल चांद के रौशनी में रंगा लाल जंगल खुद में एक किरदार नज़र आता है। लगता है जैसे जंगल जी उठा है। फिल्म में रोंगटे खड़े कर देने वाले कई मौके हैं। सच कहूं तो सेट डिजाइन, सिद्धार्थ दिवान का कैमरा वर्क और अमित त्रिवेदी का बैकग्राउंड स्कोर को देख सुनकर आपको कई बार लगेगा आप हॉलीवुड की कोई टॉप क्लास हॉरर फिल्म देख रहे हैं। अगर आप भी मेरी तरह रामसे ब्रदर्स की हॉरर फिल्में देख कर बड़े हुए हैं तो फिर ये फिल्म यकीनन आपको वर्ल्ड क्लास फिल्म लगेगी। एक बार फिर निर्माता के तौर पर अभिनेत्री अनुष्का शर्मा की एक बार फिर से तारीफ करनी होगी। परी और फिल्लौरी के बाद बुलबुल तीसरी फिल्म है जिसमें औरतों के नजरिए से समाज को देखने समझने की कोशिश हुई है। बतौर निर्देशक अनविता की ये पहली फिल्म है उन्होंने फिल्म की कहानी भी लिखी है। बॉलीवुड में अनविता की पहचान स्टोरी, लिरिक्स और डॉयलॉग राइटर के तौर पर है।

अब कुछ ऐसी बातें जो बेहतर हो सकती थीं। फिल्म सेकेंड हाफ में अपनी पकड़ खोने लगती है और कहानी में उतार चढ़ाव पीछे छूट जाता है और वो सपाट दिखने लगती है। फिल्म में चुड़ैल को गोली लगना समझ से परे है। बुलबुल का क्लाइमैक्स टिपिकल बॉलीवुड हॉरर फिल्मों की तरह है। बावजूद इनके ये फिल्म अनविता दत्त के सिंसियर एफर्ट के लिए देखी जा सकती है। 

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