रविवार की सुबह हमेशा की तरह हॉस्टल में गदर मचा हुआ था। कक्षा नौवीं के पढ़ाकू बच्चे पूरे सप्ताह का सिलेबस रिवाइज करने में जुट गए थे। कोने के एक बेड पर मधुबनी जाकर सिनेमा देखने की प्लानिंग चल रही थी। कुछ बच्चे हॉस्टल की खिड़की से मेस पर नज़रें गड़ाए "रेलगाड़ी" देख रहे थे। रंग-बिरंगे कपड़े पहने लड़कियां जब कतार बनाकर अपने हॉस्टल से मेस आती थी तो लड़के उसे रेलगाड़ी बुलाते थे। इन सबसे अलग मेरा दोस्त अपनी ही दुनिया में गुम था। मैंने उससे पूछा, क्या बात है दोस्त? उसने कहा- कुछ नहीं, चलो बाहर घूम आते हैं।
मैं और दोस्त कैंपस में टहलने निकल गये। बात करते-करते हम एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग के करीब पहुंच गए। सुबह के नौ बजे थे। बिल्डिंग के मेन गेट पर ताला लगा था। उसके बगल में बड़े कमरों का वाला क्लासरूम बना था। जो हमेशा खुला रहता था। हम बात करते-करते क्लासरूम के दरवाजे तक पहुंच गए। वहां पहुंचते ही मेरा दोस्त कमरे में दाखिल हो गया और बेंच पर जाकर बैठ गया। मैंने देखा कमरे में अलग-अलग कक्षा के पंद्रह बीस छात्र-छात्राएं मौजूद हैं। इससे पहले की मैं कुछ समझ पाता सारी नज़रें मुझपर आकर टिक गईं। मैंने ब्लैकबोर्ड की तरफ देखा। हिंदी महाशय सूर्य देव सिंह भी मुझे हैरत भरी नज़रों से देख रहे थे। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। कुछ पल को मैं किंकर्तव्यवीमूढ़ सा दरवाजे पर ही खड़ा रहा। महाशय की तल्खी भरी आवाज से ध्यान टूटा- क्या तुम्हें भी इस प्रतियोगिता में भाग लेना है? मेरा मन कह रहा था-नहीं गुरुदेव मुझे तो यहां से भाग लेना है। पर मेरी हालत सांप-छछुंदर वाली थी। ना भाग पा रहा था, ना भीतर जाने की हिम्मत थी। खैर, घूरती नज़रों के बीच मैं गुस्से और उलझन से भरा क्लासरूम में दाखिल हो गया। हर कक्षा के हिंदी में होशियार बच्चे इस प्रतियोगिता में शामिल होने पहुंचे थे। मेरा दोस्त भी हिंदी में अच्छा विद्यार्थी था। और मेरी हिंदी तो छोड़िए किसी विषय में कोई रुचि नहीं थी। मेरा जी कर रहा था, दोस्त की गर्दन दबा दूं।
महाशय ने ब्लैकबोर्ड पर लिखना बंद कर दिया और समझाने लगे। ये आशु कहानी प्रतियोगिता है। आप सबको 300 सौ शब्दों में कहानी लिखनी है। कहानी के लिए टॉपिक की बजाए कुछ शब्द दिए गए थे- जंगल, झोपड़ी और साधु। इन तीनों शब्दों को केंद्र में रखकर कहानी गढ़नी थी।
लिखने के लिए सबको दो पन्ने दिए गए थे। कलम सब साथ लेकर आए थे। सब फौरन जुट गए कहानी लिखने। मैं बगलें झांकने लगा। महाशय ने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा, साहब कलम भूल गए क्या। मैंने कहा- सर वो जल्दी में... उन्होंने अपनी कलम मुझे दे दी।
झक्क मारकर मैं कहानी बुनने लगा। आधे घंटे बाद प्रतियोगिता खत्म हुई। मुझे लगा जैसे यातना शिविर से छुट्टी मिली। बाहर निकलकर मेरा गुस्सा थोड़ा कम हो चुका था। पर मैं अभी भी दोस्त से बात करने के मूड में नहीं था। पीछे से आकर उसने कंधे पर हाथ रखा और बोला-माफी दोस्त, जल्दबाजी में प्रतियोगिता के बारे में तुम्हें बताना भूल गया। बाकी का दिन यूं ही गप्पे हांकते, कॉमिक बुक पढते गुजर गया।
अगली सुबह यानि सोमवार को फिर वही भागमभाग- 5 बजे पीटी की सीटी, तैयारी, नाश्ता और क्लासरूम। स्कूल पहुंचते ही देखा, गलियारे में लगे नोटिस बोर्ड पर कुछ बच्चे लटके पड़े हैं। मालूम हुआ कल वाली प्रतियागिता का नतीजा छपा है। कुल अठारह छात्र-छात्राएं इसमें शामिल हुए थे। मैं भी धीरे से नज़रें बचाकर अपना नाम तलाशने लगा। अपनी काबीलियत के हिसाब से नीचे से ऊपर की तरफ ढूंढने लगा। मेरा दोस्त अव्वल आया था। लेकिन मेरा नाम लिस्ट से नदारद था। जिसका डर था वही हुआ लगता था। महाशय ने मुझे इसके लायक भी नहीं समझा की मेरा नतीजा प्रकाशित किया जाए। अपने साथ हुए इस हादसे के बारे में मंथन करता हुआ मैं अपनी क्लास में दाखिल हुआ। लेकिन किसी की कोई प्रतिक्रिया नहीं देख मुझे समझ आया कि कल वाली दुर्घटना की जानकारी मेरे लंगोटिया दोस्त के सिवा किसी को नहीं है। इतने में दोस्त क्लास में दाखिल हुआ और सीधा मेरे पास आया। आते ही वो मुझे अपने साथ बाहर ले गया। बोला- तुम्हारा नाम क्यों नहीं है लिस्ट में? मैंने कहा- छोड़ो जाने दो, महाशय को इस लायक नहीं लगा होगा। उसने कहा- ऐसे कैसे, सिर्फ तुम्हारा ही नाम लिस्ट में नहीं है। पता तो करना पड़ेगा। वो मुझे लगभग घसीटता हुआ स्टाफ रूम ले गया। वहां महाशय अन्य शिक्षकों के साथ हंसी ठठ्ठा कर रहे थे। हमें देख सब शांत हो गए। महाशय ने पूछा- क्या बात है?दोस्त ने कहा- सर इसका नाम नहीं है लिस्ट में। मैं नजरें अपने ब्लैक शू पर टिकाए अपराधियों की मनोदशा में खड़ा था। महाशय ने कहा- ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने तो सारे बच्चों का नतीजा लिखा है। वो उठे और हमें साथ लेकर प्रिंसिपल ऑफिस गए। प्रिंसिपल सर ऑफिस में नहीं थे, उनके टेबल पर वो फाइल रखी थी जिसमें सारे बच्चों की कहानी और रिजल्ट शीट रखी थी। उन्होंने मेरे नाम वाला पेज निकाला और नंबर देखा। एक नजर मेरी तरफ देखकर बोले- अच्छी कहानी लिखते हो तुम, लिखा करो। प्रतियोगिता में मैं थर्ड आया था। महाशय ने नोटिस बोर्ड पर रिजल्ट की कॉपी में सुधार कर दिया था। मैंने दोस्त की तरफ कृतज्ञता भरी नजरों से देखा वो मुझसे भी ज्यादा खुश था।क्लासरूम की तरफ लौटते हुए उसने मेरे कंधे पर बांहें डाली और बोला, जानते हो दोस्त, मुझे तो पहले से था तुम्हारा रिजल्ट अच्छा होगा।
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