Saturday, July 18, 2020

CHAMAN BAHAR MOVIE REVIEW



फिल्म प्रेम रोग का मशहूर गीत है... भंवरे ने खिलाया फूल फूल को ले गया राजकुंवर। ये गाना फिल्म चमन बहार के प्लॉट को बखूबी दर्शाता है। यहां प्रॉब्लम बस एक है और वो ये है कि फिल्म में एक दो नहीं बल्कि राजकुमारों की पूरी पलटन है। कुछ पैदल, कुछ साइकिल पर और कुछ मोटरसाइकिल पर और एक तो बकायदा जोंगा जीप पर सवार होकर अपना दावा ठोक रहा है। हिरोइन का पीछा करते हुए वो कहता है, गाड़ी जरा स्पीड में चलाओ, पता तो चलना चाहिए पीछा हो रहा है। इन सबके बीच है अपना हीरो जीतू कुमार जो फिल्म में बिल्लू पानवाले के किरदार में है वो भी मन ही मन लड़की को चाहता है। फिल्म में छोटे शहरों में होनेवाली इश्कबाजी के सारे पैंतरे मौजूद हैं। एकतरफा प्यार, हाथ पर लड़की का नाम गुदवाना, म्यूजिकल ग्रिटिंग कार्ड, पेड़ और पहाड़ पर नाम लिखना।
फिल्म का हीरो जंगल में नाइट गार्ड की सरकारी नौकरी को ठुकरा देता है और आत्मनिर्भर बनने का फैसला करता है। जी हां वो पान की दुकान शुरू करता है। लेकिन जिला बदलने से वो रास्ता जिसपर उसकी दुकान है वो वीरान हो जाती है। दुकान शुरू करते ही मक्खी मारने की नौबत आ जाती है। लेकिन जल्दी ही उसकी किस्मत पलटती है और उसकी दुकान और जिंदगी दोनों में बहार आ जाती है। फिल्म की हीरोइन स्कूल में पढ़ने वाली टीनएज लड़की है जो शॉर्ट्स पहनती है और स्कूटी चलाती है। ये खबर जंगल में आग की तरह शहर भर में फैल जाती है। फिर क्या लड़की स्कूटी पर आगे आगे और सारा शहर पीछे पीछे। अपना हीरो बिल्लू भी लड़की से गुपचुप प्यार करने लगता है, फिल्म के एक सीन में वो लड़की को म्यूजिकल ग्रिटिंग कार्ड देने की सोचता है, ग्रिटिंग कार्ड की दुकान में जब वो आई लव यू वाला कार्ड दिखाने को बोलता है तो दुकानदार हैरत भरी नज़र से उसे देखता है ऐसे जैसे उसे यकीन नहीं की इस घामर को कौन लड़की अपना दिल दे बैठी। यकीनी तौर पर जीतू कुमार का किरदार पूरी फिल्म में उतना ही निरीह नज़र आता है।
लड़की को पटाने की सारी खेमेबाजी जीतू के पान दुकान पर ही होती है। और दुकान का बिजनेस भी इसी तमाशे पर टिका होता है। एक सीन में लड़के इस बात पर सट्टा लगा रहे होते हैं कि तीन बड़े दावेदारों में से कौन लड़की का दिल जीतने में कामयाब होगा। इस फिल्म के अंदाज में कहूं तो पटाने में कामयाब होगा।

फिल्म का निर्देशन किया है 'राजनीति' और 'आरक्षण' जैसी फिल्मों में प्रकाश झा को असिस्ट कर चुके युवा निर्देशक अपूर्वधर बड़गैयाँ ने जो खुद छत्तीसगढ़ से हैं।
पंचायत और शुभ मंगल ज्यादा सावधान में जीतू कुमार ने खुद को गांव कस्बे के एक साधारण से चरित्र के तौर पर बखूबी स्थापित किया है। इस फिल्म में भी जीतू का कैरेक्टर आपको फिल्म छोटी सी बात के अमोल पालेकर की झलक देता नज़र आएगा जो इश्क के मामले में फिसड्डी है। फर्क सिर्फ इतना है कि चमन बहार में हीरो की मदद के लिए कोई अशोक कुमार नहीं है। आशिकी की जंग में जीतू कुमार अकेला ही मैदान में डटा हुआ है। एकतरफा आशिकों के इस घमासान में कौन सिकंदर बनता है यही है फिल्म की कहानी।
अब तीन अच्छी बातें जो फिल्म को देखने लायक बनाती हैं.. पहली जीतू कुमार की एक्टिंग जबरदस्त है। वेब सिरीज पंचायत के बाद उनके चाहनेवालों की संख्या में खासा इजाफा हुआ है। उन्होंने चमन बहार में उस छवि को आगे बढ़ाया है। उनके अलावे सपोर्टिंग कलाकारों ने भी बढ़िया काम किया है। खासकर सोमू और छोटू की भूमिका में भुवन अरोड़ा और धीरेन्द्र कुमार ने समां बांध दिया है। दोनों फिल्म में सूत्रधार की भूमिका में हैं। दूसरा फिल्म के डायलॉग रोचक और गुदगुदाने वाले हैं। डायलॉग में संदर्भों को स्मार्टली इस्तेमाल हुआ है। एक सीन में सोमू डैडी बिल्लू को समझाते हुए कहता है कि हर रघु को एक विठ्ठल कानिया की जरूरत पड़ती है। एक और डायलॉग है शाहरूख का पिच्चर देख देख के चॉकलेटी हो गए हैं सब के सब।
फिल्म में ऐसे डॉयलॉग भर भर के हैं। फिल्म में ग्रामीण परिवेश का चित्रण उम्दा है और लोक संगीत का बखूबी इस्तेमाल हुआ है।
अब कुछ बातें जो मेरे हिसाब से बेहतर हो सकती थी। फिल्म में स्कूल में पढने वाली एक लड़की के पीछे पूरा कस्बा बौराया घूम रहा है, यहां तक तो फिर भी ठीक है लेकिन आशिकों की इस फेहरिस्त में स्कूल के मास्टर का शामिल होना हजम नहीं होता। दूसरा ये कि चमन बहार टिपिलक मर्दों की दुनिया है। फिल्म में फिमेल कैरेक्टर का कोई भी पक्ष नज़र नहीं आता।
कुल मिलाकर.... चमन बहार फिल्म है गांव कस्बे के पनबट्टी पर होने वाली अड्डाबाजी और आशिकी की। मुंह में पान की गिलौरी, सिगरेट का छल्ला और होठों पर फिल्मी तराना। भारत के गांव कस्बों के चौक चौराहों पर ये दृश्य आम है। रिलीज होने के बाद से चमन बहार लगातार नेटफ्लिक्स इंडिया टॉप टेन में पहले स्थान पर कब्जा जमाए हुए है। नेटफ्लिक्स और प्राइम वीडियो जैसे ओटीटी प्लैटफॉर्म ने बड़े और छोटे बजट की फिल्मों के साथ होनेवाले भेदभाव को मिटा दिया है। अब यहां वही बिकेगा जिसमें दम होगा।

BULBUL MOVIE REVIEW







क्या आपने कभी सोचा है भारतीय पौराणिक कहानियों में पुरुष भूतों के मुकाबले डायन और चुड़ैलों का जिक्र बहुतायत में क्यों मिलता है? अगर नहीं सोचा तो शायद बुलबुल देखने के बाद आपके सामने तस्वीर साफ हो जाएगी।

बुलबुल की कहानी ब्रिटिश काल के कलकत्ता प्रेसिडेंसी में 1881 में शुरू होती है। महज सात आठ साल की बुलबुल की शादी उससे करीब तीस साल बड़े इंद्रनील ठाकुर से कर दी जाती है। शादी के बाद कहानी सीधा बीस साल आगे मूव कर जाती है जब हवेली में उम्र में छोटी लेकिन ओहदे से बड़ी बहु... बड़े घरानों के तौर तरीके सीख रही है। अपने अम्मा बाबा की बगिया में आजाद उड़ने वाली बुलबुल अब बड़ी हवेली के पुरुष प्रधान दमनकारी माहौल में खुद को ढालने की कोशिश करती नज़र आती है। बड़े ठाकुर का छोटा भाई जो की बुलबुल का हमउम्र है लंदन से वकालत कर लौटता है जिसके बाद कहानी रफ्तार पकड़ती है और फिर इलाके में एक के बाद एक सिलसिलेवार हत्याएं होने लगती हैं। इलाके में एक चुड़ैल का खौफ है। लोगों को अंदेशा है कि ये हत्याएं वही चुड़ैल कर रही है। इससे पहले की आप किसी निश्कर्ष पर पहुंचे ये फिल्म भूत प्रेतों से कहीं ज्यादा भारतीय समाज में आदिकाल से हो रहे महिलाओं के दमन की तस्वीर बयान करती है। समाज में उनका दोयम स्थान और रीति रीवाज के नाम पर पैरों में पड़ी बेरियों को तोड़कर बाहर निकलने की उनकी अणवरत कोशिशों के नाम है ये फिल्म बुलबुल। शादी के समय छोटी सी बुलबुल अपनी मां से पूछती है, मां पैरों में बिछिया क्यों पहनते हैं, उसकी मां कहती है कि पैर में एक नस होती है जिसके दबने से फिर लड़की काबू में रहती है फिर वो उड़ नहीं सकती। एक और सीन में हवेली की छोटी बहु पाओली डैम बुलबुल को समझाते हुए कहती है कि खामोश रहोगी, तुम्हें गहने मिलेंगे, सिल्क की साड़ियां मिलेंगी, चुप रहोगी तुम्हें हवेली में नाम और इज्जत मिलेगी। फिल्म में कई सारी परतें हैं जो बुलबुल के देवर और फिल्म के हीरो अविनाश तिवारी के लंदन से लौटने के बाद खुलने लगती हैं। फिल्म लगातार एक टाइम जोन से दूसरे में शिफ्ट होती है जिससे सस्पेंस भी बना रहता है। फिल्म का निर्देशन किया है अनविता दत्ता ने। जाहिर है फिल्म में उन्होंने महिलाओं की ऐसी बारिक मनस्थिति को कैप्चर किया है जो किसी पुरुष निर्देशक के लिए मुश्किल होता। फिल्म की हीरोईन तृप्ति डिमरी ने अपने अभिनय में काफी मेच्योरिटी दिखाई है। वो इससे पहले साल दो हजार अठारह में आई लैला मजनू में नजर आईं थीं। बुलबुल में तृप्ति के के किरदार में कई शेड्स हैं और उन्होंने इस मौके को दोनों हाथों से अपनाया है। लैला मजनू में तृप्ति के कोस्टार रहे अविनाश तिवारी का काम भी बढ़िया है। अपनी बाकी फिल्मों की तरह ही अभिनेता राहुल बोस यहां ठाकुर इंद्रनील की भूमिका में रच बस गए हैं। फिल्म में बंगाली फिल्मों के अभिनेता परंब्रता चटोपाध्याय भी हैं जो डॉक्टर के किरदार में छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं।  फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर और सिनेमैटोग्राफी रहस्य और रोमांच को बढाने में मदद करता है। फिल्म में लाल रंग का खास इस्तेमाल हुआ है। बुलबुल के पैरों में लाल अलता से शुरू होकर क्लाइमैक्स तक इस रंग का भरपूर इस्तेमाल हुआ है। रात के लाल चांद के रौशनी में रंगा लाल जंगल खुद में एक किरदार नज़र आता है। लगता है जैसे जंगल जी उठा है। फिल्म में रोंगटे खड़े कर देने वाले कई मौके हैं। सच कहूं तो सेट डिजाइन, सिद्धार्थ दिवान का कैमरा वर्क और अमित त्रिवेदी का बैकग्राउंड स्कोर को देख सुनकर आपको कई बार लगेगा आप हॉलीवुड की कोई टॉप क्लास हॉरर फिल्म देख रहे हैं। अगर आप भी मेरी तरह रामसे ब्रदर्स की हॉरर फिल्में देख कर बड़े हुए हैं तो फिर ये फिल्म यकीनन आपको वर्ल्ड क्लास फिल्म लगेगी। एक बार फिर निर्माता के तौर पर अभिनेत्री अनुष्का शर्मा की एक बार फिर से तारीफ करनी होगी। परी और फिल्लौरी के बाद बुलबुल तीसरी फिल्म है जिसमें औरतों के नजरिए से समाज को देखने समझने की कोशिश हुई है। बतौर निर्देशक अनविता की ये पहली फिल्म है उन्होंने फिल्म की कहानी भी लिखी है। बॉलीवुड में अनविता की पहचान स्टोरी, लिरिक्स और डॉयलॉग राइटर के तौर पर है।

अब कुछ ऐसी बातें जो बेहतर हो सकती थीं। फिल्म सेकेंड हाफ में अपनी पकड़ खोने लगती है और कहानी में उतार चढ़ाव पीछे छूट जाता है और वो सपाट दिखने लगती है। फिल्म में चुड़ैल को गोली लगना समझ से परे है। बुलबुल का क्लाइमैक्स टिपिकल बॉलीवुड हॉरर फिल्मों की तरह है। बावजूद इनके ये फिल्म अनविता दत्त के सिंसियर एफर्ट के लिए देखी जा सकती है। 

आशु कहानी


रविवार की सुबह हमेशा की तरह हॉस्टल में गदर मचा हुआ था। कक्षा नौवीं के पढ़ाकू बच्चे पूरे सप्ताह का सिलेबस रिवाइज करने में जुट गए थे। कोने के एक बेड पर मधुबनी जाकर सिनेमा देखने की प्लानिंग चल रही थी। कुछ बच्चे हॉस्टल की खिड़की से मेस पर नज़रें गड़ाए "रेलगाड़ी" देख रहे थे। रंग-बिरंगे कपड़े पहने लड़कियां जब कतार बनाकर अपने हॉस्टल से मेस आती थी तो लड़के उसे रेलगाड़ी बुलाते थे। इन सबसे अलग मेरा दोस्त अपनी ही दुनिया में गुम था। मैंने उससे पूछा, क्या बात है दोस्त? उसने कहा- कुछ नहीं, चलो बाहर घूम आते हैं। 
मैं और दोस्त कैंपस में टहलने निकल गये। बात करते-करते हम एडमिनिस्ट्रेटिव बिल्डिंग के करीब पहुंच गए। सुबह के नौ बजे थे। बिल्डिंग के मेन गेट पर ताला लगा था। उसके बगल में बड़े कमरों का वाला क्लासरूम बना था। जो हमेशा खुला रहता था। हम बात करते-करते क्लासरूम के दरवाजे तक पहुंच गए। वहां पहुंचते ही मेरा दोस्त कमरे में दाखिल हो गया और बेंच पर जाकर बैठ गया। मैंने देखा कमरे में अलग-अलग कक्षा के पंद्रह बीस छात्र-छात्राएं मौजूद हैं। इससे पहले की मैं कुछ समझ पाता सारी नज़रें मुझपर आकर टिक गईं। मैंने ब्लैकबोर्ड की तरफ देखा। हिंदी महाशय सूर्य देव सिंह भी मुझे हैरत भरी नज़रों से देख रहे थे। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। कुछ पल को मैं किंकर्तव्यवीमूढ़ सा दरवाजे पर ही खड़ा रहा। महाशय की तल्खी भरी आवाज से ध्यान टूटा- क्या तुम्हें भी इस प्रतियोगिता में भाग लेना है? मेरा मन कह रहा था-नहीं गुरुदेव मुझे तो यहां से भाग लेना है। पर मेरी हालत सांप-छछुंदर वाली थी। ना भाग पा रहा था, ना भीतर जाने की हिम्मत थी। खैर, घूरती नज़रों के बीच मैं गुस्से और उलझन से भरा क्लासरूम में दाखिल हो गया। हर कक्षा के हिंदी में होशियार बच्चे इस प्रतियोगिता में शामिल होने पहुंचे थे। मेरा दोस्त भी हिंदी में अच्छा विद्यार्थी था। और मेरी हिंदी तो छोड़िए किसी विषय में कोई रुचि नहीं थी। मेरा जी कर रहा था, दोस्त की गर्दन दबा दूं। 
महाशय ने ब्लैकबोर्ड पर लिखना बंद कर दिया और समझाने लगे। ये आशु कहानी प्रतियोगिता है। आप सबको 300 सौ शब्दों में कहानी लिखनी है। कहानी के लिए टॉपिक की बजाए कुछ शब्द दिए गए थे- जंगल, झोपड़ी और साधु। इन तीनों शब्दों को केंद्र में रखकर कहानी गढ़नी थी। 
लिखने के लिए सबको दो पन्ने दिए गए थे। कलम सब साथ लेकर आए थे। सब फौरन जुट गए कहानी लिखने। मैं बगलें झांकने लगा। महाशय ने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा, साहब कलम भूल गए क्या। मैंने कहा- सर वो जल्दी में... उन्होंने अपनी कलम मुझे दे दी। 
झक्क मारकर मैं कहानी बुनने लगा। आधे घंटे बाद प्रतियोगिता खत्म हुई। मुझे लगा जैसे यातना शिविर से छुट्टी मिली। बाहर निकलकर मेरा गुस्सा थोड़ा कम हो चुका था। पर मैं अभी भी दोस्त से बात करने के मूड में नहीं था। पीछे से आकर उसने कंधे पर हाथ रखा और बोला-माफी दोस्त, जल्दबाजी में प्रतियोगिता के बारे में तुम्हें बताना भूल गया। बाकी का दिन यूं ही गप्पे हांकते, कॉमिक बुक पढते गुजर गया। 
अगली सुबह यानि सोमवार को फिर वही भागमभाग- 5 बजे पीटी की सीटी, तैयारी, नाश्ता और क्लासरूम। स्कूल पहुंचते ही देखा, गलियारे में लगे नोटिस बोर्ड पर कुछ बच्चे लटके पड़े हैं। मालूम हुआ कल वाली प्रतियागिता का नतीजा छपा है। कुल अठारह छात्र-छात्राएं इसमें शामिल हुए थे। मैं भी धीरे से नज़रें बचाकर अपना नाम तलाशने लगा। अपनी काबीलियत के हिसाब से नीचे से ऊपर की तरफ ढूंढने लगा। मेरा दोस्त अव्वल आया था। लेकिन मेरा नाम लिस्ट से नदारद था। जिसका डर था वही हुआ लगता था। महाशय ने मुझे इसके लायक भी नहीं समझा की मेरा नतीजा प्रकाशित किया जाए। अपने साथ हुए इस हादसे के बारे में मंथन करता हुआ मैं अपनी क्लास में दाखिल हुआ। लेकिन किसी की कोई प्रतिक्रिया नहीं देख मुझे समझ आया कि कल वाली दुर्घटना की जानकारी मेरे लंगोटिया दोस्त के सिवा किसी को नहीं है। इतने में दोस्त क्लास में दाखिल हुआ और सीधा मेरे पास आया। आते ही वो मुझे अपने साथ बाहर ले गया। बोला- तुम्हारा नाम क्यों नहीं है लिस्ट में? मैंने कहा- छोड़ो जाने दो, महाशय को इस लायक नहीं लगा होगा। उसने कहा- ऐसे कैसे, सिर्फ तुम्हारा ही नाम लिस्ट में नहीं है। पता तो करना पड़ेगा। वो मुझे लगभग घसीटता हुआ स्टाफ रूम ले गया। वहां महाशय अन्य शिक्षकों के साथ हंसी ठठ्ठा कर रहे थे। हमें देख सब शांत हो गए। महाशय ने पूछा- क्या बात है?दोस्त ने कहा- सर इसका नाम नहीं है लिस्ट में। मैं नजरें अपने ब्लैक शू पर टिकाए अपराधियों की मनोदशा में खड़ा था। महाशय ने कहा- ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने तो सारे बच्चों का नतीजा लिखा है। वो उठे और हमें साथ लेकर प्रिंसिपल ऑफिस गए। प्रिंसिपल सर ऑफिस में नहीं थे, उनके टेबल पर वो फाइल रखी थी जिसमें सारे बच्चों की कहानी और रिजल्ट शीट रखी थी। उन्होंने मेरे नाम वाला पेज निकाला और नंबर देखा। एक नजर मेरी तरफ देखकर बोले- अच्छी कहानी लिखते हो तुम, लिखा करो। प्रतियोगिता में मैं थर्ड आया था। महाशय ने नोटिस बोर्ड पर रिजल्ट की कॉपी में सुधार कर दिया था। मैंने दोस्त की तरफ कृतज्ञता भरी नजरों से देखा वो मुझसे भी ज्यादा खुश था।क्लासरूम की तरफ लौटते हुए उसने मेरे कंधे पर बांहें डाली और बोला, जानते हो दोस्त, मुझे तो पहले से था तुम्हारा रिजल्ट अच्छा होगा। 

Sunday, May 10, 2020

                      पाताल लोक


अमेजन प्राइम के नये वेब सिरीज पाताल लोक का ट्रेलर रिलीज हो गया है। ये एक सस्पेंस क्राइम थ्रिलर है जिसके ट्रेलर और टीजर में सड़कों पर और गलियों में होने वाले अपराध से आगे जाकर समाज में जहर घोलने वाले इंटेलेक्चुअल क्राइम की तरफ इशारा किया गया है। जहां राजनेता, अपराधी, नौकरशाही और मीडिया के सांठ गांठ के कारण अपराध पनप रहा है और समाज विनाश के कगार पर पहुंच चुका है। हिंदू धर्मग्रंथों में त्रिलोक की अवधारणा है यानि आकाश, धरती और पाताल। आकाश मतलब स्वर्ग लोक जहां देवताओं का वास है उसके बाद है धरती यानि मृत्युलोक जहां इंसानों का वास है और तीसरा है पाताल लोक जहां राक्षस, सांप और कीड़े रहते हैं। वेब सिरीज के ट्रेलर में इन सबके अलावा एक चौथा पहलू भी है और वो है मीडिया और पत्रकार। नए जमाने में अपराधी सिर्फ वो नहीं जो चाकू या बंदूक के दम पर क्राइम को अंजाम देता है, बल्कि समाज में एक तबका उन बुद्धिजीवी अपराधियों का भी है जो अपनी कलम और जुबान का दुरुपयोग समाज में जहर घोलने के लिए कर रहे हैं।
बॉलीवुड अभिनेत्री अनुष्का शर्मा के लिए बतौर प्रोड्यूसर ये पहली वेब सिरीज है। अनुष्का ने इससे पहले तीन फिल्में प्रोड्यूस की हैं। एनएच 10, परी और फिल्लौरी। अनुष्का फिल्म इंडस्ट्री की उन चुनिंदा निर्माताओं में शुमार हैं जो चुनौतीपूर्ण विषयों पर फिल्म बनाने का दम रखती हैं।
इस वेब सिरीज का निर्देशन किया है अविनाश अरुण ने। उनकी मराठी फिल्म किल्ला को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। अविनाश दृश्यम, मसान और मदारी जैसी फिल्मों में सिनेमैटोग्राफर रह चुके हैं और उनके काम की खूब सराहना भी हुई है।
एक्टर्स की बात करें तो पाताल लोक में मंझे हुए अभिनेताओं की फौज नजर आएगी। सबसे पहला नाम नीरज कबी का है जो पाताल लोक में एक बड़े पत्रकार की भूमिका में नज़र आएंगे। वहीं जयदीप अहलावत एक पुलिसवाले का किरदार निभा रहे हैं जो साइको किलर बने अभिषेक बनर्जी को पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं। अभिषेक बनर्जी इससे पहले मिर्जापुर में दमदार भूमिका निभाई थी।
इनके अलावा गुल पनाग और राजेश शर्मा भी महत्वपूर्ण भूमिकाओं में नज़र आएंगे।
अनुष्का ने इंस्टाग्राम पर फिल्म का ट्रेलर शेयर करते हुए लिखा है कि ये है पाताल लोक, यहां के सफेद झूठ और काले सच में फर्क करना मुश्किल है

Saturday, February 3, 2018

"झूठी अम्मा"

झूठी अम्मा

अक्टूबर की मीठी सर्द शाम थी, मैं तेज़ कदमों से मधुबनी रेलवे स्टेशन की तरफ बढ़ रहा था। शाम के छे बजे थे। एक घंटे लेट चल रही दरभंगा से जयनगर जानेवाली पांच बजिया पैसेंजर ट्रेन मिलने की उम्मीद थी। प्लेटफॉर्म पर दाखिल होते ही वहां पसरे सन्नाटे ने बता दिया कि ट्रेन जा चुकी है। अगली ट्रेन आने में देर थी। मालूम हुआ ट्रेन प्लेटफॉर्म नंबर दो पर आएगी। मैं फुटओवर ब्रिज पार कर प्लेटफॉर्म नंबर दो पर आ गया। प्लेटफॉर्म नंबर दो-तीन पर निर्माण कार्य जोरों पर था। निर्माण सामग्री इधर-उधर बिखरी पड़ी थी। वहीं प्लेटफॉर्म के एक कोने में एक बुढ़िया ईंटों को जोड़कर चूल्हे में लकड़ी सुलगा कर कुछ पका रही थी। उसने अपना सारा सामान एक बोरे में रखा हुआ था। दोबारा मेरा ध्यान उसकी तरफ तब गया जब वो चिल्ला रही थी, गे छोरी, एम्हर आबि क खेल, ओम्हर खइस पड़बिही” (ऐ लड़की, यहां आकर खेलो, वहां गिर पड़ोगी।) मैंने देखा थोड़ी दूरी पर  डेढ़-दो साल की एक बच्ची मैले कुचैले कपड़ों में खेल रही थी। कुछ देर खेलते-खेलते उसे नींद आने लगी। वो उस बुढ़िया के बगल में बैठकर ऊंघने लगी। बुढ़िया उसे बार-बार उठाकर कहती बस अभी खाना बन जाएगा। खाकर सोना। आग पर चढ़ी हांडी उतारकर उसने तवा चढ़ा दिया। हाथों से ही रोटियों को थपकियां देकर उसने तवे पर डालना शुरू कर दिया। उसने जल्दी से बोरी से एक थाली निकाली और हांडी से सब्जी के नाम पर उबले आलू निकालकर उसमें परोस दिया। बच्ची गरमागरम रोटी तोड़कर आलू के साथ खाने लगी। दोनों के खा चुकने के बाद बुढ़िया ने सारे बर्तन प्लेटफॉर्म के पियाऊ पर धोया और उसे वापस बोरी में समेटकर सोने की तैयारी करने लगी। बोरी से एक प्लास्टिक निकालकर वहीं बिछा दिया और बच्ची को उसपर सुला दिया। एक रस्सी निकाली और बच्ची के हाथ में बांध दिया और उसका एक सिरा अपने हाथ में बांधकर सो गई।
उन दोनों को देखकर अब तक मेरे मन में कई सवाल उठने लगे। आखिर कौन हैं ये दोनों? बच्ची के मां-बाप कहां हैं। बच्ची अकेली इस बूढ़ी अम्मा के साथ प्लेटफॉर्म पर रहने को क्यों मजबूर है। उस बच्ची के बारे में सोचकर मेरा मन एक अंजान डर से भर गया। कहीं कोई बच्चा चोर उसे उठा ले गया तो। क्या मामूली सी रस्सी उस बच्ची की रक्षा करने में कामयाब होगी? अगर बुढ़िया को  कुछ हो गया तो फिर इस बच्ची का क्या होगा? कौन रखेगा उसका ख्याल? सवाल कई थे, पर जवाब एक भी नहीं।
इस वाकये को दो साल गुज़र गए। इस बीच मधुबनी से जयनगर जाने की भागमभाग में एक-दो बार और उनपर नजर पड़ी होगी। कई बार जी में आया की उनसे जाकर बात करूं। पर जाने क्या सोचकर रुक गया।
आज दो साल बाद इकत्तीस दिसंबर 2017 की शाम चार बजे हैं। मैं एक बार फिर मधुबनी स्टेशन पर पांच बजिया ट्रेन की राह देख रहा हूं। प्लेटफॉर्म नंबर एक पर पत्थर के बेंच पर बैठा में मोबाइल में मैसेजेज चेक करने में मशगूल हो गया। इतने में महसूस हुआ कि भीख मांगती एक आवाज़ पास आ रही है। थोड़ी देर बाद ही वो आवाज़ बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई। मैंने नज़र उठाकर देखा वही बुढ़िया खड़ी थी। वो गिड़गिड़ाती आवाज़ में खाने के लिए पैसे मांग रही थी। मैंने देखा अभी भी उसके कंधे पर एक प्लास्टिक की बोरी टंगी थी और उसके साथ करीब चार साल का एक लड़का खड़ा था। लड़के ने फुल पैंट और नीले रंग का स्वेटर पहना हुआ था लेकिन पैर नंगे थे। उसे देखते ही मुझे उस बच्ची का ख्याल हो आया। मैंने पर्स से बीस रुपये का नोट निकाला और बुढ़िया के हाथ में रख दिया। बीस का नोट देख उसकी आंखों में चमक आ गई। उसने फौरन मेरे सर पर हाथ रखकर आशीर्वादों की बौछार कर दी। मैंने अपनापन दिखाते हुए कहा-मैंने आपको कई बार देखा है यहां। उसने फौरन पूछा- क्या मैं आसनसोल का हूं? मैंने कहा नहीं, मेरा घर जयनगर है। उसके सवाल से लगा शायद वो आसनसोल की है।
मैंने आगे पूछा- वो जो एक बच्ची थी आपके साथ वो नज़र नहीं आ रही। कहां है वो? ये सवाल सुनते ही बुढ़िया थोड़ा संभल गई। कुछ पल रुक कर बोली- यहीं कहीं खेल रही होगी। मुझे उसका जवाब थोड़ा अटपटा लगा। खैर, मैंने उसके साथ खड़े लड़के की तरफ इशारा करते हुए पूछा, ये कौन है? उसने कहा- मेरा पोता है, गोलू। मैंने अपने बैग से एक चॉकलेट निकालकर गोलू की तरफ बढ़ा दिया। बच्चा उसे हाथ में लेकर निहारने लगा। बुढ़िया अपनी धुन में सुनाए जा रही थी, कैसे वो एक बार वो दरभंगा से लौट रही थी तो कुछ उचक्कों ने उसकी बोरी छीन ली। जिसमें खाना पकाने के लिए कुछ बर्तन और राशन का सामान था। तबसे वो खाना नहीं बनाती। भीख मांगकर पैसे जुटाती है और सड़क किनारे सस्ते होटल में जाकर पेट भर लेती है। वो लगातार बड़बड़ा रही थी लेकिन मेरा मन उस बच्ची के बारे में सोचकर उद्धिग्न होने लगा।
आखिर कहां गई होगी वो बच्ची? कहीं कोई उसे छीन तो नहीं ले गया। कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया। मेरे मन का वहम अब शक में बदलने लगा। कहीं इस बुढ़िया ने उसे किसी के हाथों बेच तो नहीं दिया। उसकी जगह कोई और बच्चा ले आई हो। कहीं ये बच्चा चोर गिरोह की सरगना तो नहीं है।
चॉकलेट खाते-खाते उस बच्चे ने पानी की फरमाइश की- अम्मा, पानी दो। बुढ़िया ने बोरी से एक बोतल निकाली और पास के पियाऊ से पानी लेने चली गई।
मेरा मन अब उस लड़के को लेकर भी चिंतित होने लगा। इसी उधेड़बुन में मेरी निगाह उस पर गई जो अभी तक बड़ी सावधानी से चॉकलेट के छोटे छोटे टुकड़े काटकर खा रहा था। मुझसे निगाह मिलते ही वो हंसा और पास आ गया। मैंने भी प्यार से उसके सिर पर हाथ फेर दिया।

उसने हंसते हुए कहा- मेरी अम्मा सबको झूठ बोलती है कि मेरा नाम गोलू है। मेरा नाम तो आरती है

Thursday, May 15, 2014

चौमासा - बिरह गीत

प्रथम मास अषाढ़ सुंदर
श्याम हमर विदेश यौ...
कौन विधि हम मास खेपब
के हरत दुख मोर यौ...
सावन चमकति हृदय करकत
आजि नहिं नंदलाल औता
जीवन आब कौन काज यौ...
भादौ निशि अंधियारि चौदिश
विविध रंगक शब्द यौ...
श्याम सुंदर कुबजि वश भेल
रहल अब मोही तेज यौ...
आसिन आस लगाय अब हम
बितल चारू मास यौ...
राम-कृष्ण मुरारी भज मन
बितित केल चौमास यौ...

गायिका - अंबिका देवी

Monday, December 23, 2013

अनसुनी आवाजें - जनसत्ता के संपादकीय पृष्ठ पर 17.01.14 को प्रकाशित

वो अपनी नन्हीं बाहों को खींच खींचकर लंबा करता और ताड़ के पत्तों से बने झाड़ू से बर्थ के नीचे पड़े कूड़े साफ कर रहा था। उम्र यही कोई 7-8 साल होगी, कपड़ों के नाम पर बदन पर मैले-कुचैले चीथड़े झूल रहे थे। बीच-बीच में किसी भोजपुरी फिल्म का गीत भी गुनगुना रहा था। लोअर बर्थ पर पैर नीचे लटकाए बैठे एक सज्जन का पैर उसकी झाड़ू से छू गया, वो चिल्लाया – क्या करता है बे! सुनते ही उसने फौरन अपने गंदे और पीले दांत निपोड़ दिए। नन्ही उम्र में ही गुटखा खाने की लत लग गई थी शायद।
 दिल्ली से जयनगर जानेवाली ग़रीब रथ समस्तीपुर पहुंचनेवाली थी। वो बरौनी जंक्शन पर ट्रेन में चढ़ा था। पानी की खाली बोतलें, चिप्स, बिस्कुट के खाली रैपर, तंबाकू और गुटखे की पुड़िया... यात्रियों की मेहरबानी से कूड़े की कोई कमी नहीं दिखती बोगी के भीतर। बर्थ के नीचे से निकलती गंदगी की ढेर से बोगी खत्म होते-होते कूड़े का अंबार सा लग गया। उसने पूरी ताकत के साथ सारे कूड़े को एसी-3 कोच के दरवाजे से बाहर धकेला। बाहर ट्वायलेट के पास बैठकर कुछ देर तक वो कूड़े में अपने काम की चीजें ढूंढता रहा। ऐसे जैसे वो अपने भविष्य की तस्वीर ढूंढ रहा हो। बिस्कुट, फ्रुट केक, चिप्स, चॉकलेट के रंग बिरंगे रैपर देखकर उसकी आंखों में चमक आ जाती थी। वो हर रैपर को बड़े ही ध्यान से देखता, खंगालता। आखिरकार उसे एक फ्रुट केक का टुकड़ा मिला। उसने फूंक मारकर उसे साफ किया और मुंह में डाल लिया। आधी इस्तेमाल की हुई गुटखे की पुड़िया पैंट में खोंसते हुए वो कोच में फिर दाखिल हुआ और यात्रियों से पैसे मांगने लगा। कहीं से पैसे मिलते तो कहीं से दुत्कार, सबको समान भाव से समेटता हुआ वो मेरी सीट के पास पहुंचा।
मैंने पूछा- नाम क्या है तुम्हारा?
उसने बताया- नीतीश।सुनते ही पड़ोसी यात्री हंसते हुए बोल पड़ा- हे.. हे.. अबे, मुख्यमंत्री होके झाड़ू लगाता है।ट्रेन की गंदगी और सफाई के बहाने राजनीति की चर्चा छिड़ते ही एक और सज्जन बीच में कूद पड़े - नीतीश कुमार राज्य की गंदगी साफ कर रहे हैं और ये ट्रेन की गंदगी साफ कर रहा है। कूपे में कुछ लोग हंसने लगे। हालांकि बिहार जानेवाली ट्रेनों में लालू और नीतीश के नाम पर राजनीतिक बहस लोगों का सबसे प्रिय शगल है लेकिन उस बच्चे को तुकबंदी वाला ये चुटकुला समझ नहीं आया। हालांकि लोगों के हंसने पर उसे कोई खास ऐतराज भी नहीं था। जाहिर है ऐसी ताने भरी हंसी सुनना उसकी दिनचर्या में शामिल होगा।  मुझे अचानक ख्याल आया की बिहार में नीतीश कुमार की सरकार को आए भी करीब साढ़े सात-आठ साल हुए हैं। संभव है मां बाप ने परिवर्तन और विकास की उम्मीद में बेटे का नाम नीतीश रख दिया होगा।ना चाहते हुए भी मैंने वो घिसा पिटा सवाल भी पूछ ही लिया - स्कूल जाते हो?
लेकिन इससे पहले की वो जवाब देता किसी ने उसे झिड़का अबे, भीख मांगता है, कोई काम काहे नहीं करता है।
लड़के के जवाब में सवाल था- भीख मांग रहे हैं ?  झाड़ू लगावे में मेहनत नहीं पड़ता है का?” उसकी आवाज़ में स्वाभिमान था।खिड़की वाली सीट पर जमे स्थूलकाय सज्जन ने लड़के का साथ दिया और मुंह में रखे पान को संभालते हुए सर को थोड़ा ऊपर और आंखें नीची करके गुलगुलाते हुए स्वर में बोले- झाड़ू के लिएऐसा मत बोलिए भाई साब, दिल्ली में देखे नहीं झाड़ू का खेला। आम आदमी पार्टी वाला सब कइसे बड़का बड़का नेता लोगों का गरदा झाड़ दिया है। ई लड़का लोग भी आगे चल के आप पार्टी का नेचुरल सपोर्टर बनेगा।मुद्दे को भटकता देख लड़के ने आखिरी कोशिश की – पइसा देना है त जल्दी से दीजिए, हमरा औरो बोगी देखना है। आपलोगों जैसा गपास्टिंग से पेट नहीं भरता है हमारा।     मेरी दिलचस्पी उसमें बढ़ने लगी। मैं उसके रहन- सहन के बारे में सब जान लेना चाहता था। मेरे भीतर के पत्रकार ने एक और सवाल दागा। कितना कमा लेते हो एक दिन में?
इतनी देर में वो शायद मेरे सवालों से उकता चुका था।बोला- एतना सवाल काहे पूछते हैं? जो देना है जल्दी से दीजिए और नक्की करिए। सवाल पूछ- पूछ के करोड़पति बना दीजिएगा का?
हमारे सवाल जवाब का सिलसिला कुछ और चलता कि अचानक उसकी नज़र बोगी के दूसरे छोर पर पड़ी, उधर देखकर उसके चेहरे का भाव अचानक बदल गया और वो गुस्से और हिकारत के साथ चिल्लाया रे राहुलवा, भागले रे स्साला हमरा बोगी से, साला झाड़ू लगइली हम आ पइसा लेवे हइ तू हरामी इतना कहता हुआ वो उधर की ओर लपका जहां राहुल नाम का उसका हमउम्र लोगों से पैसे मांग रहा था। दोनों बच्चे हाथ में झाड़ू लिए बोगी पर अपने हक़ को लेकर झगड़ने लगे। ट्रेन के शोरगुल में उनकी आवाज़ कहीं गुम होती चली गई।